गाजियाबाद. एक दौर था जब नाटकों का अपना एक अलग क्रेज था. हिन्दी नाटक को देखने के लिए लोग इंतजार करते रहते थे. लोगों में उत्सुकता रहती थी कि नाटक में कुछ नया देखने को मिलेगा. लेकिन, बदलते दौर के साथ हिन्दी नाटक का दायरा सिमटता चला गया. अब तो आलम यह है कि बेहतरीन नाटक की प्रस्तुति के बाद या तो ऑडिटोरियम खाली रहता है या फिर खामोश रहते हैं.
अब तो हिंदी कलाकारों को इसकी आदत सी पड़ गई है. हिंदी नाटक की घटती लोकप्रियता और उनके कलाकारों के बारे में ज्यादा जानकारी दी थिएटर आर्गेनाइज करने वाले पुराने डायरेक्टर अरविंद सिंह ने भी चिंता जाहिर की है.
तकनीक ने बदला थिएटर का स्वरूप
डायरेक्टर अरविंद सिंह ने बताया कि पहले और अब के प्ले में काफी अंतर है. पहले आर्टिस्ट के पीछे दृश्य बदलने के लिए बड़े पर्दों का इस्तेमाल होता था. तब उतनी फैंसी लाइट भी नहीं थी. इसके बाद भी दर्शकों से सभागार भरा रहता था. आज एलईडी डिस्प्ले, फैंसी लाइट और कई रोमांचक ग्राफिक्स है. इसके बावजूद दर्शक नाटक को देखने के इच्छुक नहीं दिखते. यह कहीं ना कहीं खिलाड़ियों का मनोबल घटाती है. हालत ऐसी हो गई है कि प्ले का टिकट नहीं बिकता और कलाकार के लिए संघर्ष भी बढ़ गया है.
कलाकारों का बदल गया है रूझान
डायरेक्टर अरविंद सिंह ने बताया कि युवा आर्टिस्ट थिएटर या फिर नाटक में काम नहीं करना चाहते हैं. सभी को फिल्मों का ग्लैमर आकर्षित कर रहा है. इस कारण वो थिएटर जॉइन करने की जगह सीधे मुंबई चले जाते हैं और फिर जब वहां सफलता नहीं मिलती है, तब वहां से वापस आकर कलाकार विभिन्न जगहों पर प्रैक्टिस करता है. किसी भी बड़े कलाकार की शुरूआत नाटक मंच से ही आरंभ होता है.
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FIRST PUBLISHED : August 9, 2024, 15:09 IST