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भाजपा को कई राज्यों में लोकसभा सीटों का घाटा उठाना पड़ा है। यूपी, राजस्थान के अलावा देश के दूसरे सबसे ज्यादा लोकसभा सीटों वाले राज्य महाराष्ट्र में भी भाजपा को करारा झटका लगा है। भाजपा को यहां 9 सीटें ही मिली हैं, जबकि 2019 में उसे 23 पर जीत मिली थी। भाजपा के लिए चिंता की बात यह भी रही कि उसकी सहयोगी एकनाथ शिंदे वाली शिवसेना भी 7 सीट जीत पाई। इसके अलावा अजित पवार की एनसीपी को तो महज एक सीट पर ही जीत मिली है। इन नतीजों पर मंथन का दौर जारी है और भाजपा का मातृ संगठन कहा जाने वाला आरएसएस भी ऐक्टिव हो गया है।
आरएसएस ने इन नतीजों के लिए अजित पवार से गठबंधन पर भी निशाना साधा है। उसका यह रुख अजित पवार के लिए टेंशन की बात है। इसकी वजह यह है कि एक तरफ उसे चुनावी नतीजों में झटका लगा है तो वहीं आरएसएस की आलोचना के बाद उसके लिए गठबंधन में भी मुश्किल होगी। भाजपा यह आकलन करने में जुटी है कि गठबंधन साथियों से उसे कितना फायदा मिला है। न्यूज एजेंसी IANS के अनुसार भाजपा तो एक सर्वे भी करा रही है, जिसमें यह पता लगाने की कोशिश होगी कि अकेले चुनाव लड़ने में उसके लिए क्या संभावनाएं रहेंगी।
अजित पवार के लिए एक मुश्किल यह भी है कि वह वैचारिक आधार पर समझौता करके भाजपा संग आए हैं। एकनाथ शिंदे की शिवसेना की तो भाजपा से वैचारिक समानता है और इसे लेकर आरएसएस को भी कोई आपत्ति नहीं है। लेकिन भाजपा और आरएसएस का एक वर्ग मानता है कि अजित पवार से दोस्ती का ज्यादा फायदा नहीं है। अजित पवार की पार्टी ने 4 सीटों पर चुनाव लड़ा था, जिसमें से एक पर ही जीत हासिल हुई। वहीं एकनाथ शिंदे गुट ने 15 सीटों पर चुनाव लड़ा और 7 पर विजय पाई। इस तरह उसने उद्धव ठाकरे की शिवसेना के मुकाबले अपनी ताकत दिखाई है। इसके अलावा यदि उद्धव गुट भी एनडीए के साथ आता है तो भाजपा दोनों को समाहित कर लेगी।
कैसे चौराहे पर आकर खड़े हो गए हैं अजित पवार
अब अजित पवार के लिए यह अस्तित्व का सवाल है। चाचा शरद पवार के गुट ने चुनावी सफलता पाकर दिखाया है कि जनता का उन पर भरोसा है। इसके अलावा अब यदि अजित पवार भाजपा के साथ बने रहे तो वह शरद पवार से दूर ही रहेंगे। इसकी वजह यह है कि शरद पवार शायद एनडीए में न ही आएं। वहीं उद्धव गुट के लिए ऐसा करना आसान है। इस तरह डिप्टी सीएम पद के लिए साथ आए अजित पवार अब चौराहे पर खड़े हो गए हैं।