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Friday, December 27, 2024

117 साल के डेटा का निष्कर्ष: पहाड़ों पर गर्मी से ग्लेशियर 3 किमी तक सिकुड़े, 8-10 साल में बर्फबारी का सीजन बहुत कम

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देहरादून5 मिनट पहले

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हिमालय पर तापमान 10°c बढ़ने से बर्फबारी डेढ़ महीने आगे खिसकी गई है। मार्च में जनवरी जैसी बर्फबारी हुई है।

पूरा हिमालय भू-भाग सदी के सबसे बड़े बदलाव से गुजर रहा है। इसकी परमानेंट स्नो लाइन (हिम रेखा) 100 मी. पीछे खिसक चुकी है। यहां सर्दियों में तापमान एक डिग्री बढ़ने से ग्लेशियर तीन किमी तक सिकुड़ चुके हैं। यही वजह है कि बर्फबारी का सीजन भी डेढ़ महीने आगे खिसक गया है।

हिमालय रीजन में जो बर्फबारी दिसंबर-जनवरी में होती थी, वो फरवरी मध्य से शुरू होकर अब तक जारी है। उत्तराखंड के वाडिया हिमालय भू विज्ञान संस्थान के वैज्ञानिकों ने 1901 से 2018 तक के क्लाइमेट रिसर्च यूनिट के डेटा का विश्लेषण कर निष्कर्ष निकाला है कि तापमान ऐसे ही बढ़ा तो 8 से 10 साल में हिमालय पर बर्फबारी का सीजन पूरी तरह बदल जाएगा या बहुत कम रह जाएगा।

दिसंबर-जनवरी की बर्फबारी इन महीनों में तापमान कम रहने से ड्राई होकर जम जाती थी, लेकिन, अब जो बर्फबारी हो रही है, वो तापमान ज्यादा होने से पिघल रही है। इससे हिमालय इस बार जल्द ही बर्फ से सूना होने की आशंका है। संस्थान की यह रिसर्च हाल ही में प्रकाशित हुई है।

वाडिया के पूर्व वैज्ञानिक डॉ. डीपी डोभाल बताते हैं कि जहां आज गंगोत्री मंदिर है, वहां कभी ग्लेशियर था

वाडिया के पूर्व वैज्ञानिक डॉ. डीपी डोभाल बताते हैं कि जहां आज गंगोत्री मंदिर है, वहां कभी ग्लेशियर था

गंगोत्री ग्लेशियर 200 सालों में 18 किमी पिघल चुका
वाडिया के पूर्व वैज्ञानिक डॉ. डीपी डोभाल बताते हैं कि जहां आज गंगोत्री मंदिर है, वहां कभी ग्लेशियर था। जैसे-जैसे तापमान बढ़ा, ग्लेशियर सिकुड़ता गया। 1817 से अब तक यह 18 किमी से ज्यादा पीछे जा चुका है। लगभग 200 साल पहले ग्लेशियर खिसकने का दस्तावेजीकरण सर्वे ऑफ इंडिया के भू विज्ञानी जॉन हॉजसन ने किया था। उसमें पता चला था कि 1971 के बाद से ग्लेशियरों के पीछे हटने की दर 22 मी. प्रति वर्ष रही है।

सबसे ज्यादा असर… उत्तर-पूर्वी हिमालय में सबसे तेजी से पिघले ग्लेशियर
वाडिया के वैज्ञानिक विनीत कुमार के मुताबिक, मौसम चक्र बदलने का सबसे ज्यादा असर देश के उत्तर-पूर्वी हिस्से में हुआ है। रिमोट सेंसिंग सैटेलाइट का डेटा बताता है कि अरुणाचल प्रदेश में 1971 से 2021 के दौरान ज्यादातर ग्लेशियर 9 मी. प्रति वर्ष की औसत रफ्तार के साथ 210 मी. पीछे खिसक चुके हैं। जबकि लद्दाख में यह रफ्तार 4 मी. प्रति वर्ष रही। कश्मीर के ग्लेशियरों के पिघलने की रफ्तार भी लगभग ऐसी ही है।

तीन बड़ी वजह- संतुलन बिगड़ा, ड्राई बर्फ गायब, गीली टिक नहीं रही
उत्तराखंड में 11,385 फीट ऊपर बना तुंगनाथ मंदिर। 14 साल पहले जितनी बर्फ जनवरी में होती थी, उतनी इस बार मार्च में है। इतनी ऊंचाई पर बर्फबारी का स्वरूप बदला हुआ है।

परमानेंट स्नो लाइन हिमालय पर 4 से 5 हजार मी. ऊपर होती है। ये स्थाई बर्फ के कारण बनती है। इसके तीन हजार मी. नीचे तक वनस्पति नहीं होती। रिसर्च बताती है कि स्नो लाइन पीछे खिसकने से जहां पहले कम तापमान में हिमपात होता था, वहां अब बारिश होने लगी है। इसलिए हिमालय का कई किमी इलाके से बर्फ गायब हो चुकी है।

पहाड़ों पर गर्मी अमूमन मई से शुरू होती है। लेकिन, बीते एक दशक में सर्दी का तापमान बढ़ा है, जबकि गर्मी का स्थिर है। इससे हिमालय में गर्मी ज्यादा महीने टिक रही है, जो वहां के जीव-जंतुओं और वनस्पति के लिए भी खतरनाक है।

भू गर्भ वैज्ञानिक डॉ. मनीष मेहता के मुताबिक पहले दिसंबर-जनवरी में ड्राई स्नो गिरती थी, वो तापमान कम रहने से ज्यादा जमी रहती थी। ग्लेशियर दुरुस्त रहते थे। पारा चढ़ा तो ड्राई स्नो बंद हो गई। अब गीली बर्फ गिर रही है, जो थोड़ी गर्मी होते ही पिघल जा रही है।

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