इटावा /रजत कुमार: इटावा जिले के जसवंतनगर में दशहरे का उत्सव एक अनूठी परंपरा के साथ मनाया जाता है, जो इसे अन्य रामलीलाओं से अलग करती है. जहां देशभर में रावण को खलनायक के रूप में दिखाकर उनका पुतला दहन किया जाता है, वहीं जसवंतनगर में रावण की पूजा संकटमोचक के रूप में की जाती है. इस रामलीला में रावण का पुतला जलाने के बजाय उसकी लकड़ियों को घरों में ले जाकर रखा जाता है, ताकि पूरे साल घर में कोई बाधा या संकट न आए.
165 साल पुरानी परंपरा
जसवंतनगर की रामलीला का इतिहास करीब 165 साल पुराना है. यह रामलीला खुले मैदान में होती है, जहां रावण की आरती उतारी जाती है और उसकी पूजा की जाती है. यह परंपरा दक्षिण भारत में प्रचलित है, लेकिन उत्तर भारत के इस कस्बे ने इसे अपनाया और इसे अपनी संस्कृति का हिस्सा बना लिया.
यहां नहीं जलाया जाता रावण का पुतला
दशहरे के दिन राम और रावण के बीच युद्ध होता है, जिसे डोलों पर सवार होकर दिखाया जाता है. जब रात में पंचक मुहूर्त आता है, तब रावण के पुतले का वध किया जाता है. लेकिन यहां अन्य जगहों की तरह रावण का पुतला नहीं जलाया जाता, बल्कि उसे पत्थरों और लाठियों से पीटकर धराशायी किया जाता है.
रावण की लकड़ियों की मान्यता
रावण के पुतले की लकड़ियों को स्थानीय लोग उठाकर अपने घर ले जाते हैं. उनका मानना है कि इन लकड़ियों को घर में रखने से विद्या की वृद्धि होती है, और धन-धान्य में समृद्धि आती है. लोगों का यह भी विश्वास है कि इन लकड़ियों को रखने से भूत-प्रेत का प्रकोप नहीं होता और घर में शांति बनी रहती है.
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यहां मनाई जाती है रावण की तेरहवीं
जसवंतनगर में रावण की तेरहवीं मनाने की एक और अनूठी परंपरा है. इस तेरहवीं में कस्बे के सभी लोगों को आमंत्रित किया जाता है. यह रावण के प्रति सम्मान का प्रतीक है, जिसे यहाँ संकटमोचक के रूप में देखा जाता है.
सालों से हो रही रावण की पूजा
अंतरराष्ट्रीय मैदानी रामलीला के व्यवस्थापक अजेंद्र गौर का कहना है कि रामायण में रावण को एक क्रूर पात्र के रूप में दिखाया गया है, लेकिन जसवंतनगर में रावण की पूजा की जाती है. उनका मानना है कि इस परंपरा का पालन वर्षों से हो रहा है और यह लोगों के जीवन में सकारात्मक ऊर्जा का संचार करती है.
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FIRST PUBLISHED : October 9, 2024, 15:09 IST
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