दिल्ली हाई कोर्ट ने हाल ही में कहा है कि अदालतें ना तो मूक दर्शक और तमाशबीन हैं, ना ही लाउडस्पीकर, जो आरोप पत्र में लिखी गई बातों को ही दोहराती रहें। कोर्ट ने कहा कि किसी भी मामले में दाखिल पुलिस चार्जशीट की बातों को अदालत लाउडस्पीकर बनकर नहीं दोहरा सकती है। जस्टिस नीना बंसल कृष्णा ने हत्या की कोशिश के आरोप में दो भाइयों को बरी करते हुए यह टिप्पणी की। इनमें से एक भाई को आर्म्स एक्ट की धारा 27 के तहत भी दोषी करार देने से बरी कर दिया। यह मामला 2017 का है।
लाइव लॉ की रिपोर्ट के मुताबिक, अदालत ने दोनों भाइयों की उस याचिका को स्वीकार कर लिया, जिसमें उनके खिलाफ आरोप तय करने के ट्रायल कोर्ट के आदेश को चुनौती दी गई थी। ऐसा करते हुए कोर्ट ने कहा कि तीन जांच अधिकारियों द्वारा मामले की जांच की गई थी, लेकिन तीनों जांच अधिकारी हमलावरों की पहचान करने में सफल नहीं हो सके, जिन्होंने कथित तौर पर शिकायतकर्ता और अन्य व्यक्तियों को गोली मारी थी।
हाई कोर्ट ने दिल्ली पुलिस की जांच पर सवाल उठाते हुए कहा कि जब कथित हमलावर शिकायतकर्ताओं की जान-पहचान के थे, तो उनका नाम पहली शिकायत में क्यों नहीं लिया गया, जो दो साल पहले लिखी गई थी। जस्टिस कृष्णा ने कहा, “हमलावरों को शिकायतकर्ता और घायल व्यक्ति पिछले 14 वर्षों से जानते थे, इसके बावजूद शिकायत दर्ज कराने में अत्यधिक देरी हुई, यह एक ऐसी परिस्थिति है जो स्पष्ट रूप से याचिकाकर्ताओं के झूठे आरोप की ओर इशारा करती है।”
कोर्ट ने कहा कि दो याचिकाकर्ताओं के नाम इतनी देरी से दर्ज करने के लिए पुलिस के पास कोई कोई स्पष्टीकरण नहीं है, सिवाय इसके कि बाद में दुर्भावनापूर्ण इरादे और गलत तरीके से दर्ज किया गया है। इसमें कहा गया है कि जांच अधिकारी ने घटनास्थल से गोलियों के खोखे बरामद करने के लिए कभी जांच ही नहीं की, जबकि इससे जांच में अहम सुराग मिल सकते थे।
अदालत ने याचिका स्वीकार करते हुए कहा कि ऐसे मामलों में, जहां झूठा आरोप स्पष्ट रूप से लगाया गया है, याचिकाकर्ताओं को पूरे मुकदमे से गुजरने के लिए मजबूर भी किया गया, जो वास्तव में न्याय का उपहास है। अदालतें मूक दर्शक या लाउडस्पीकर नहीं बन सकतीं जो चार्जशीट में उनके सामने जो कुछ भी प्रस्तुत किया गया है, उसे स्वीकर कर ले और उसे दोहराते रहे।