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Friday, March 29, 2024

ITI के छात्रों का कमाल,अब धान की पराली से बना सकते हैं Eco-Friendly कप प्लेट

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चंडीगढ़

धान की पराली से धुएं से निजात दिलाने के लिए भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी), दिल्ली के इन्क्यूबेशन सेंटर से जुड़े एक स्टार्टअप ने इससे ईको-फ्रेंडली कप और प्लेट जैसे उत्पाद बनाने की पद्धति विकसित की है। इन छात्रों ने धान की पराली का इस्तेमाल करने के लिए एक इकाई स्थापित की है, जो आमतौर पर प्रचलित प्लास्टिक प्लेटों का विकल्प बन सकती है। विशेषज्ञों के अनुसार पराली में 10 प्रतिशत तक सिलिका होती है, जिसकी वजह से अधिकतर औद्योगिक प्रक्रियाओं में इसका उपयोग करना मुश्किल होता है। शोधकर्ताओं ने एक विलायक-आधारित प्रक्रिया विकसित की है, जिसकी मदद से सिलिका कणों के बावजूद फसल अवशेषों को औद्योगिक उपयोग के अनुकूल बनाया जा सकता है।

खराब हो रही दिल्‍ली की हवा, वायु प्रदूषण को लेकर बनी आपातकालीन योजना क्रिया लैब्स नामक स्टार्टअप के मुख्य संचालन अधिकारी अंकुर कुमार ने बताया कि इस तकनीक की मदद से किसी भी कृषि अपशिष्ट या लिग्नोसेल्यूलोसिक द्रव्यमान को होलोसेल्यूलोस फाइबर या लुगदी और लिग्निन में परिवर्तित कर सकते हैं। लिग्निन को सीमेंट और सिरेमिक उद्योगों में बाइंडर के रूप में भी इस्तेमाल किया जा सकता है। फिलहाल, हम धान की पराली से बनी लुगदी से टेबल वेयर बना रहे हैं। हर साल सर्दियों की शुरुआत में पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश में लाखों टन पराली जला दी जाती है। पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के अनुसार, इस मौसम में अब तक पराली जलाने की पंजाब में 700 और हरियाणा में 900 से अधिक घटनाओं का पता चला है। नासा के नेतृत्व में किए गए एक अध्ययन के मुताबिक देश के उत्तर-पश्चिमी क्षेत्रों में फसल अवशेष जलाने के कारण धुएं और धुंध कागुबार महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, तेलंगाना, छत्तीसगढ़ और ओडिशा तक फैल रहा है।

इस पहल की शुरुआत आई.आई.टी.-दिल्ली के छात्र अंकुर कुमार, कनिका प्रजापति और प्रचीर दत्ता ने मई 2014 में ग्रीष्मकालीन परियोजना के रूप में शुरू की थी, जब वे बी-टैक कर रहे थे। उनका विचार था कि फसल अपशिष्टों से जैविक रूप से अपघटित होने योग्य बर्तन बनाने की तकनीक विकसित हो जाए तो प्लास्टिक से बने प्लेट तथा कपों का इस्तेमाल कम किया जा सकता है। इसके लिए उन्होंने एक प्रक्रिया और उससे संबंधित मशीन विकसित की और पेटेंट के लिए आवेदन कर दिया। अंकुर कुमार ने बताया, “जल्दी ही हमें यह एहसास हो गया कि मुख्य समस्या कृषि कचरे से लुगदी बनाने की है, न कि लुगदी को टेबलवेयर में परिवर्तित करना।” अभी स्थापित की गई यूनिट में प्रतिदिन 10 से 15 किलोग्राम कृषि अपशिष्टों का प्रसंस्करण किया जा सकता है। क्रिया के संस्थापकों का कहना है कि अब वे इससे जुड़ा पायलट प्लांट स्थापित करने के लिए तैयार हैं, जिसकी मदद से प्रतिदिन तीन टनफसल अवशेषों का प्रसंस्करण करके दो टन लुगदी बनाई जा सकेगी। 

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